विंध्य के पहले IAS गोविंद नारायण सिंह जिन्होंने बगावत की CM बने और सिंधिया के दखल में छोड दिया मुख्यमंत्री पद।
विन्ध्य के लिए गौरव है कि गोविंद नारायण सिंह ने प्रदेश का ताज पहना है। आपको जानकर हैरत होगी कि मध्यप्रदेश की पहली गैरकांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह थे जिन्होने आईएएस की परीक्षा पास कि असिस्टेन्ट रीजनल कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए और पद त्याग नें के बाद सियासत की राह चुनी. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री और बिहार के राज्यपाल बने।
गोविन्द नारायण सिंह विंध्य के कद्दावर कांग्रेस नेता अवधेश प्रताप सिंह के बेटे थे। अवधेश रीवा राज्य के प्रधानमंत्री रहे थे और आजादी के बाद बने विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। बेटे गोविन्द ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली लेकिन नौकरी की जगह जॉइन की राजनीति। गोविन्द नारायण सिंह का जन्म 25 जुलाई 1920 को रामपुर बघेलान मध्य प्रदेश में हुआ था। सन 1941 में गोविन्द नारायण सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों के लिये नजरबन्द कर दिये गए थे। 1942 के अगस्त आन्दोलन से 1944 तक कारावास काटा। 1946 से 1947 के अन्त तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में लेक्चरर तथा गवेषणा कार्य भी किया। गोविन्द नारायण सिंह 1948 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिये चुने जाने पर विन्ध्य प्रदेश सरकार के अंतर्गत असिस्टेन्ट रीजनल कमिश्नर के पद पर नियुक्त हुए और कार्यभार ग्रहण करने के दूसरे दिन ही पद त्याग दिया।
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पिता की सीट रामपुर बघेलान से 1952 में लड़े और चुनाव भी जीते, फिर जीतते रहे। मुख्यमंत्री पं द्वारका प्रसाद मिश्र और गोविंद नारायण में नजदीकी थी तो मिश्र ने सीएम बनने के बाद गोविन्दग नारायण सिंह को मंत्री बनाया। लेकिन जो घनिष्ठता विधायक दल के चुनाव के वक्त थी वह धीरे-धीरे खत्म हो गई। 1963 में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में कैलाशनाथ काटजू ने तो अपने पैर वापस खींच लिए लेकिन तख्तमल बात को कांग्रेस विधायक दल में वोटिंग तक लेकर गए।
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पं द्वारका प्रसाद मिश्र इस वोटिंग में जीते उसकी एक वजह था पं द्वारका प्रसाद मिश्र का विधायक मैनेजमेंट दूसरी वजह थे वो कांग्रेसी जिन्होंने पं द्वारका प्रसाद मिश्र के पक्ष में जोरदार अभियान चलाया था। इनमें एक बड़ा नाम था गोविंद नारायण सिंह। पं द्वारका प्रसाद मिश्र जमीन से उठकर जिस तरह मुख्यमंत्री बने थे। पं द्वारका से मंत्री-विधायक तक खुलकर बात करने से कतराते थे। इससे असंतोष उपजा सबसे ज्यादा गोविंद नारायण सिंह में। उन दिनों गोविंद नारायण पर ये इल्जाम लग गया कि उन्होंने अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान एक नर्स को छेड़ा वो कहते रहे कि ये घटना काल्पनिक है लेकिन आरोप कायम रहा।
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इसके अलावा एक बार गोविंद नारायण विधानसभा में बोलने खड़े हुए। मामला धार जिले से जुड़ा हुआ था् पर पं द्वारका प्रसाद मिश्र टोक दिया। गोविंद नारायण को सरेआम ठेस लगी और दोनों में गांठ भी लग गई। गोविन्द नारायण सिंह के पहले पं द्वारका प्रसाद राजमाता सिंधिया भी अपमान कर चुके थे। पं द्वारका प्रसाद मिश्र ने यूथ कांग्रेस के प्रोग्राम में रजवाड़ों का मजाक बनाया, सामने बैठी ग्वालियर की कांग्रेस सांसद विजयराजे सिंधिया को बुरा लगा फिर 67 के चुनाव में उनके समर्थकों के टिकट कटे् उन्होंने निर्दलीय लड़ा। डीपी फिर भी सीएम बन गए मगर सिंधिया अपने बेटे माधवराव संग प्रयासों में लगी रहीं।
चुनाव जीतने और सरकार बनने का जश्न खत्म होते ही दो चीजों पर सबका ध्यान गया। पहली ये कि पहली बार कोई विपक्षी दल विधासभा में मजबूती से पहुंचा। 78 विधायकों वाला जनसंघ दूसरी ये कि रामपुर बघेलान गोविंद नारायण की सीट के बगल की सीट अमरपाटन से कांग्रेस प्रत्याशी गुलशेर अहमद चुनाव हार गए। गुलशेर ने कांग्रेस हाईकमान से लिखित शिकायत में इल्जाम लगाया कि गोविंद नारायण की वजह से वो चुनाव हारे। सो जब मिश्र का कैबिनेट बनाए तब गोविंद नारायण को नहीं लिया गया गोविंद नारायण आग बबूला और उनके अंदर की तपिश को पकड़ लिया राजमाता सिंधिया ने गोविंद नारायण ने मिश्र के खिलाफ खेमाबंदी शुरू कर दी दूसरी तरफ राजमाता ने भी मिश्र की मुखालफत के लिए अपने विधायकों का एक गुट बनाया जिसका नाम आगे चलकर हुआ जनक्रांति दल।
दलबदल की बातों के बीच मिश्र सरकार ने अपना बजट पेश किया और चर्चा चलने लगी। 36 कांग्रेसी विधायक सदन में मौजूद नहीं थे कहां थे कोई नहीं जानता था। बात चल पड़ी कि राजमाता सिंधिया और जनसंघ के लोगों ने इन 36 विधायकों का अपहरण कर लिया है और मिश्र की सरकार गिराने की पूरी तैयारी कर ली गई है। 19 जुलाई 1967 को छतरपुर के विधायक लक्ष्मण दास ने विधानसभा अध्यक्ष को लिखिल शिकायत में कहा कि उन्हें एमएलए रेस्टहाउस से उठाकर रात भर खंडहर में रखा गया और जबरन दलबदल के कागज पर दस्तखत करवाए गए।
जितने विधायक कांग्रेस से टूटने को तैयार हुए, उन्हें राजमाता ने भोपाल के सबसे आलीशान होटल द इंपीरियल सेबर में खाना खिलाया।् यहीं राजमाता ने गोविंद नारायण सिंह के साथ बैठकर विधायक तोड़ने की नीति बनाई थी। अगले दिन बचे 26 विधायक राजमाता इन्हें बस में बैठाकर पहले ग्वालियर ले गईं फिर दिल्ली। फिर सभी को वापस ग्वालियर ले आईं और जयविलास पैलेस में बंद कर दिया। पूरा गेम फिट होने के बाद 28 जुलाई को राजमाता अपने विधायकों को लेकर भोपाल के लिए निकलीं। रात में सभी विधायकों को स्पीकर काशी प्रसाद पांडे के बंगले पर रोका गया। विधायकों ने रात स्पीकर के लॉन में गुजारी, घास पर लेटे-लेटे लेकिन किसी ने आजिज आकर वहां से जाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि रात भर गोविंद नारायण सिंह अपने कंधे पर रिग्बी 275 राइफल लेकर पहरा देते रहे। अगले दिन विधानसभा की कार्रवाई शुरू हुई, गोविंद नारायण सिंह ने स्पीकर से कह दिया कि हम लोग कांग्रेस से दलबदल करके आए हैं। हम पर दबाव डाला जा रहा है जान का खतरा हैं। डीपी मिश्र तुरंत राज्यपाल के पास चले गए और मध्यावधि चुनाव की मांग कर दी।
30 जुलाई को गोविंद नारायण सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। कांग्रेस से टूटकर आए विधायकों ने खुद को नाम दिया लोक सेवा दल। राजमाता के विधायक कहलाते थे जनक्रांति दल, इनके साथ आया जनसंघ। समाजवादी और लेफ्ट वाले भी आए तो सरकार का नाम हुआ संयुक्त विधायक दल। शॉर्ट में संविद् जनसंघ के वीरेंद्र कुमार सखलेचा बने डिप्टी सीएमण् एक समन्यवय समिति बनी जिसकी अध्यक्ष हुईं विजयाराजे सिंधिया।संविद सरकार जोड़तोड़ का नतीजा थी। गोविंद नारायण सिंह की टांग तीन दिशाओं में खिंची जाती थी कांग्रेसी, जनसंघी और सिंधिया खेमा।
गोविंद का पूरा वक्त कलह सुलझाने में जाता। सरकार बनाने में पैसा भी बहुत खर्चा था। राजमाता सिंधिया का दखल चरम पर था जबकि गोविंद नारायण अपने पिता अवधेश प्रताप सिंह के जमाने से ही रजवाड़ों से दूर और जनता से जुड चुके थे। राजमाता सिंधिया चाहती थीं कि गोविंद नारायण डीपी मिश्र पर किसी बहाने कार्रवाई कर दे। लेकिन गोविंद नारायण ने ऐसा नहीं किया। मार्च 1969 की एक रात मुख्यमंत्री गोविंद नारायण अर्जुन सिंह से मिलने गए और कांगेस में वापसी कर ली। इंदिरा गांधी ने गोविंद नारायण सिंह को कांग्रेस में वापस लिया, लेकिन मध्य प्रदेश की सियासत में वापस नहीं जाने दिया। राजीव गांधी की सरकार में गोविन्द नारायण सिंह को बिहार का राज्यपाल बनाया गया। उनका विवाह मई 1945 में श्रीमती पद्यावती देवी के साथ हुआ था। वे 5 बेटों और एक बेटी के पिता थे। उनके बेटे हर्ष सिंह पहली बार 1980 में रामपुर बघेलान से विधायक चुने गए और फिर कांग्रेस, बीजेपी और राष्ट्रीय समता दल की टिकट पर चुनाव जीते। वर्तमान में उनके पोते रामपुर बघेलान सीट से भाजपा विधायक है।