भारत की इकलौती रेलवे लाइन जिस पर आज भी अंग्रेजों का कब्जा, हर साल दी जाती है भारी-भरकम रकम, क्या है इसकी वजह,
शकुंतला ट्रेन लाइन पर पतले गेज की एक ही ट्रेन ही चलती है.
इस ट्रेन का परिचानल यवतमाल से अचलपुर तक होता है.
ये लाइन 1916 में पूरी तरह बनकर तैयार हुई थी.
नई दिल्ली. आज हम भारतीय रेलवे (Indian Railways) से जुड़ा एक ऐसा तथ्य बताने जा रहे हैं जिस पर शायद आप पहली बार में विश्वास न करें. दरअसल देश में एक ऐसा रेलवे ट्रैक है जिस पर आज भी अंग्रेजों का कब्जा है. इस ट्रैक को शकुंतला रेलवे ट्रैक के नाम से जाना जाता है. शकुंतला रेलवे लाइन पर वैसे तो सिर्फ एक ही ट्रेन चलाई जाती है, लेकिन इसके ऐवज में हर साल लाखों रुपये का भुगतान ब्रिटेन को किया जाता है. यह रेलवे लाइन महाराष्ट्र के अमरावती जिले में स्थित है. महाराष्ट्र के अमरावती से मुर्तजापुर तक इस ट्रैक की लंबाई करीब 190 किलोमीटर है.
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अंग्रेजों के समय में इस ट्रैक पर ट्रेनों का परिचालन ग्रेट इंडियन पैनिंसुलर रेलवे करती थी. आजादी के करीब 5 साल बाद रेलवे का राष्ट्रीयकरण किया गया लेकिन इस लाइन को नजरअंदाज कर दिया गया. इस तरह ये ट्रैक आज भी ब्रिटेन की एक निजी कंपनी सेंट्रल प्रोविंसेस रेलवे कंपनी के अधीन है. इस पर अब सिर्फ एक ही ट्रेन का परिचालन होता है जिसका नाम शंकुतला पैसेंजर है. इसी ट्रेन के नाम पर ट्रैक का भी नाम प्रसिद्ध हो गया.हर साल करोड़ों की रॉयल्टी
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चूंकि, भारतीय रेलवे एक ट्रेने के परिचालन के लिए इस ट्रैक का इस्तेमाल करती है इसलिए हर साल सेंट्रल प्रोविंसेस रेलवे कंपनी को करोड़ों रुपये की रॉयल्टी दी जाती है.
हालांकि, पैसे लेने के बावजूद ब्रिटिश कंपनी इस ट्रैक की मरम्मत या रखरखाव का काम नहीं करती है. भारत सरकार हर साल करीब 1.20 करोड़ रुपये की रॉयल्टी कंपनी को देती है. इस लाइन को कई बार खरीदने का प्रयास भी किया गया लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. शकुंतला पैसेंजर यवतमाल और अचलपुर (अमरावती जिले में) के बीच आने-जाने के लिए निम्नवर्गीय परिवारों का इकलौता सहारा है. इसलिए ट्रेन का परिचालन भी बंद नहीं किया जाता है.
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कहां बनी थी ट्रेन
इस ट्रेन का निर्माण ब्रिटेन के मैनचेस्टर में 1921 में किया गया था. करीब 70 सालों तक इसे पुराने इंजन के साथ ही चलाया गया. हालांकि, 1994 में इंजन को बदल दिया गया और उसकी जगह डीजल इंजन लगा दिया गया. शकुंतला रेल लाइन बिछाने का काम 1903 में शुरू किया गया था. इसे कपास को अमरावती से उठाकर मुंबई बंदरगाह तक ले जाने के लिए बनाया गया था. 13 साल बाद यानी 1916 में यह ट्रैक पूरी तरह बनकर तैयार हो गया था.