जानिये, विन्ध्य के चंदेलों का सिंगरौली फसाद, जो ब्रिटिश गवर्नमेण्ट तक पहुंचा
विन्ध्य में चंदेल राजाओं की भी बडी स्टेट हुआ करती थी, जो सिंगरौली से लेकर उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती इलाके तक फैली थी। यह स्टेट बघेल रियासत के पूर्व-दक्षिण में चंदेलों का 700 मौजा वाला सिंगरौली ताल्लुका रहा था। ब्रिटिश राज के दौरान मिर्जापुर जिला में जुडी हुई सिंगरौली जागीर रही है। इस जागीर के राजा नरेन्द्र सिंह थे, जिन्होने सन 1871 में एजीजी के यहां दावा पेश किये थे कि रीवा दरबार को 9 हजार रूपये सालाना जमा करते है।
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तत्कालीन महाराज रघुराज सिंह रीवा दरबार उनके कई मदन जैसे आबकारी और जंगल की कर वसूली कर लेते है। इनता ही नही हमारे इलाका में अपना थाना बना रखे है। इस वजह से वे रीवा दरबार में निर्धारित सालना 9 हजार रूपये जमा नही कर पायेगें। लिहाजा यह मामला ब्रिटिश गवर्नमेण्ट को भेज दिया गया। जहां से फैसला आया कि सिंगरौली राज की भूमि रीवा रियासत मे है, इस वजह से रीवा दरबार के सीधे अधिकार में है और ब्रिटिश गर्वनमेण्ट का कोई जमानत नहीं है। यह तो फैसला रीवा दरबार पर मुनहसर है।
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सन 1878 मे राजा नरेन्द्र सिंह के स्वर्गवास होने पर उनके वारिस उदित नारायण सिंह राजा बनें। वह भी चार साल तक मामला नहीं चुकाये। जब सन 1882 में एजीजी सर लेपेल ग्रेफिन आये तो उनसे मुलाकात करके अपने मामले के बारे में चर्चा की। इस जबाव मिला दरबार में मिलकर बात कर ली जाये। तब दरबार की भूमिका सुपरिनटेन्डेन्ड रीवा स्टेट निभाते थे। बातचीत में राजा ये बात मंजूर कर लिये कि पट्टा बना दिया जाये। पट्टा में 9 हजार रूपये सालाना मामला जमा करेगें औ हर मद की वसूली दरबार करेगी।
मामला का बकाया जमा करने के लिए कहा गया, दीवानी और फौजदारी मामले का मुकदमा भी दरबार के हक में था। राजा पट्टा मंजूर कर लिये, उनको एक खिल्लत भी मिली। एजीजी सर लेपिलग्रेफिन 24 जुलाई 1882 को राजा का दाबा मंसूब कर दिये। इस तरह से रीवा रियासत के तत्कालीन महाराज वेंकटरमण सिंह के शासनकाल में सिंगरौली फसाद का अंत हुआ और चंदेल राजा ने राहत की सांस ली।